महात्मा – मेरी नज़र से

2 10 2007

एक बच्चे की नज़र से मैं हमेशा गाँधीजी से नफ़रत करता था। ऐसे कारणों से जो आज मुझे इतने सहज नहीं लगते। उस समय मैं इस बात को समझ नहीं पाता था कि कैसे कोई सुभाष चन्द्र बोस को सहयोग नहीं कर सकता था वो भी ऐसे समय में जबकि वो अंग्रेज़ों के साथ आर पार की लड़ाई लड़ रहे थे? कोई कैसे बिना जवाब दिए रह सकता था जबकि मासूम लोगों को जेलों में बंद कर उन्हें यातनाएं दी जा रहीं थीं। यहाँ तक कि उन्हें जान से भी मारा जा रहा था। ये कुछ ऐसे सवाल थे जो एक ऐसे बच्चे के मन में उठ रहे थे जो अहिंसा के सिद्धांत की महानता को समझ नहीं सकता था। कभी कभी तो मैं इस हद तक चला जाता था कि मैं गाँधीजी की हत्या करने के लिए नाथूराम गोडसे का आभार मानता था।

मुझे कुछ ठीक से याद नहीं कि ये कब की घटना है। मैं किसी से गाँधीजी के विषय में चर्चा कर रहा था और काफ़ी गर्मागर्म बहस चल रही थी (मैं यहाँ पर देना चाहता हूँ कि मैं उस चर्चा में काफ़ी उद्दंड था). इसी बीच उन्होनें एक ऐसी बात कही जो मेरे मन को गहरे तक छू गई। उन्होनें कहा “एक बिलकुल साफ़ सफ़ेद कपड़ा लो और फ़िर उसपर स्याही की कुछ बून्दें छिड़क दो। उसके बाद किसी को भी वो कपड़ा दिखाओ और उनसे पूछो कि वो क्या देख रहे हैं। सभी का जवाब एक ही होगा – स्याही की कुछ बून्दें। शायद ही कोई उस सफ़ेद कपड़े की तरफ़ ध्यान देगा लेकिन किसी की नज़र से स्याही की वो कुछ बून्दें नहीं बचेंगी।” “गाँधीजी एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है जो हमारी विवेचना से परे है। अकसर हम इस देश के लिए किए हुए उनके अनगिनत कामों को भूल जाते हैं और अपनी नज़रों को उनकी कमियों पर ही गड़ाए रखते हैं।” इस विचार ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। ये कोई चमत्कारी बात नहीं थी। लेकिन इसने मुझे चीज़ों की तरफ़ देखने का एक अलग नज़रिया दिया। एक नज़रिया जिसे कुछ लोग “Dimensional Thinking” या “Perspective Thinking” कहते हैं।

इस घटना के बाद मैंने गाँधीजी और उनके समय के इतिहास के बारे में काफ़ी पढ़ा। मुझे उस समय जो कुछ भी मिल सका मैनें लगभग वो सभी कुछ पढ़ डाला। गाँधीजी की आलोचनाएँ, उनकी प्रशंसा, उनपर बाहरी लोगों के विचार, यहाँ तक कि उनके बारे में कुछ अंग्रेज़ अधिकारियों के विचार भी।

आज मुझे लगता है कि मैं कुछ हद तक ये समझ पाया हूँ कि गाँधीजी क्या थे और अपने विचारों के ज़रिये उन्होंने हमारे समाज, हमारे देश और यहाँ तक कि पूरी दुनिया पर क्या असर डाला है। गाँधीजी जैसी महान शख्शियत को समझने की कोशिश करते समय हमें एक बात का ध्यान रखना चाहिये – गाँधीजी भगवान नहीं थे। वो भी एक इन्सान थे। और एक इन्सान से ऐसी उम्मीद करना कि वो कभी ग़लती कर ही नहीं सकता – एक भारी भूल है। ग़लतियाँ सबसे होती हैं। हमारे अंदर इतनी समझ होनी चाहिए कि हम पूरे परिदृश्य को देखें न कि अपनी सोच को सिर्फ़ उन ग़लतियों तक ही सीमित रखें जो शायद गाँधीजी से हुई थीं (यदि मैं ऐसी कोई बात कहने का दुस्साहस करूँ)।

आज जबकि मैं ये लिख रहा हूँ, मैं ये जानता और समझता हूँ कि बहुत सारे ऐसे लोग हैं (जिनमें सिर्फ़ युवा ही शामिल नहीं) जो ये समझते हैं कि गाँधीवादी विचारधाराएँ आज के समय में किसी काम की नहीं है। आज गाँधीजी के १३८वें जन्मदिन पर मैं ये कहना चाहता हूँ कि मैं अपने ब्लॉग पर गाँधीजी  के बारे में निबंधों की एक श्रंखला लिखूंगा। यह एक प्रयास होगा लोगों को बताने का कि कैसे गाँधीजी के विचार आज भी हमारी जीवनशैली को बदल सकते हैं और हमें ये सिखा सकते हैं कि हम कैसे इस दुनिया को बेहतर और सुरक्षित बना सकते हैं।

इस निबंध का अंग्रेज़ी संस्करण मेरे दूसरे ब्लॉग पर उपलब्ध है।


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